स्वामी विवेकानन्द ने कहा था कि, “जिस दिन से यूरोप में शिक्षा और संस्कृति का प्रवाह उच्च वर्गों से जन-साधारण की ओर बढ़ा, उसी दिन से पश्चिम की वर्तमान सभ्यता और भारत, मिश्र, रोम आदि की प्राचीन सभ्यताओं में अंतर प्रारम्भ हो गया | प्रत्येक राष्ट्र अपने जन-साधारण में शिक्षा और बुद्धिमत्ता की वृद्धि के अनुपात में ही प्रगति कर रहा है | यदि हमें उत्थान करना है तो हमें भी वही करना होगा अर्थात् शिक्षा को जन-साधारण में फैलाना होगा”* (उत्तिष्ठत ! जाग्रत !!, पृष्ठ ६४)| इस सत्संदेश के अनुसार विश्लेषण करने से तो स्पष्ट दिखाई देता है कि हम आज उस कालखण्ड से बहुत आगे आ गए हैं जब बिलासपुर में अंग्रेजों ने भारतीय शिक्षा-पद्धति को (यदि ‘बरबादकर’ न कहें तो) बदलकर 1 मार्च 1867 में पहला पूर्व माध्यमिक स्कूल खोलकर एंग्लो वर्नाकुलर स्कूल की शुरूआत की थी | तब बहुत वर्षों तक वह शिक्षा कुलीन और उच्च वर्गों तक ही सीमित और जन-साधारण को दुर्लभ थी | अब तो जन-साधारण की पहुँच में अनेंकों प्राथमिक-विद्यालयों से लेकर माध्यमिक, उच्च,उच्चतर विद्यालय, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय हैं | बिलासपुर तो एजुकेशन हब बन चुका है | मगर, इतना सुलभ और साधन-सम्पन्न होते हुए भी क्या शिक्षा का स्तर व गुणवत्ता जैसी होनी चाहिए, वैसी है ? शिक्षा का जैसा उद्देश्य होना चाहिए वैसा है ? क्या उस उद्देश्य के अनुसार संतोषजनक शिक्षण हो रहा है ?
स्वामीजी ने स्पष्ट कहा है कि *“शिक्षा विविध जानकारियों का ढेर नहीं है, जो तुम्हारे मस्तिष्क में ठूंस दिया गया है और जो आत्मसात हुए बिना वहाँ आजन्म पड़े रहकर गड़बड़ मचाया करता है | हमें उन विचारों की अनुभूति कर लेने की आवश्यकता है, जो ‘जीवन-निर्माण’, ‘मनुष्य’-निर्माण तथा ‘चरित्र-निर्माण’ में सहायक हों ! विदेशी भाषा में दूसरे के विचारों को रटकर, अपने मस्तिष्क में उन्हें ठूंसकर और विश्वविद्यालयों की पदवियाँ प्राप्त करके तुम अपने को शिक्षित समझते हो ! क्या यही शिक्षा है ? तुम्हारी शिक्षा का उद्देश्य क्या है ? या तो मुंशीगिरी मिलाना या वकील हो जाना, या अधिक-से-अधिक मजिस्ट्रेट बन जाना जो मुंशीगिरी का ही दूसरा रूप है—बस यही न ! इससे तुमको या तुम्हारे देश को क्या लाभ होगा ?…हमें यांत्रिक और ऐसी शिक्षा की आवश्यकता है जिनसे उद्योग-धंधों की वृद्धि और विकास हो जिससे मनुष्य नौकरी के लिए मारा-मारा फिरने के बदले अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पर्याप्त कमाई कर सके और आपातकाल के लिए संचय भी कर सके | सभी प्रकार की शिक्षा और अभ्यास का उद्देश्य ‘मनुष्य-निर्माण’ ही हो ! जिस प्रक्रिया से मनुष्य की इच्छा-शक्ति का प्रवाह और प्रकाश संयमित होकर फलदायी बन सके, उसी का नाम है शिक्षा”* (राष्ट्रीय शिक्षा आन्दोलन का इतिहास : सं. देवेन्द्र स्वरूप,पृष्ठ ७९,८०में उद्धृत) |
मनुष्य-निर्माण करने वाली शिक्षा का यह महान और पवित्र उद्देश्य अब तक की शिक्षा-प्रणाली में तो दूर-दूर तक कहीं नजर नहीं आया ! उसी का दुष्परिणाम है कि शिक्षा की गुणवत्ता की दृष्टि से छत्तीसगढ़ निचले पायदान तक पिछड़ता नजर आ रहा है, कुछ सर्वेक्षणों के निष्कर्षों के मुताबिक़ तो शिक्षा का स्तर औंधे मुँह गिरता नजर आ रहा है | यद्यपि, संख्या और साधन-सुविधाओं की दृष्टि से जहाँ बिलासपुर में 1863 में मात्र एक पूर्व माध्यमिक-स्कूल था वहीँ आज बिलासपुर सहित समूचे छत्तीसगढ़ में सभी स्तर के कई हजार शिक्षण संस्थान बड़े ताम-झाम से संचालित हो रहे हैं | *मगर देश भर में कराये गए सर्वेक्षण में छत्तीसगढ़ के बच्चों का परफार्मेंस 30 राज्यों से भी पीछे है | अखबारों में छपे समाचारों के मुताबिक स्कूली शिक्षा की गुणवत्ता सहित बच्चों की सीखने की क्षमता को परखने के लिए केन्द्रीय शिक्षा मन्त्रालय ने जो सर्वे नवम्बर 2021 में कराया था उस ‘नेशनल अचीवमेंट सर्वे-2021’ की रिपोर्ट अब जारी हो चुकी है | तदनुसार राज्य के बच्चों ने भाषा,विज्ञान,गणित,अंग्रेजी,पर्यावरण जैसे सभी प्रमुख विषयों में राष्ट्रीय औसत अंक से काफी कम अंक हाँसिल किये हैं | देश के राज्य और केंद्र शासित प्रदेशों में राज्य के कक्षा तीसरी के बच्चों को भाषा में 500 में औसतन 301 अंक मिले हैं जबकि देश का औसत अंक 323 है | इसमें प्रदेश को 34वाँ स्थान मिला है | इसी तरह गणित में 32वाँ और पर्यावरण में 34वाँ स्थान | इसी तरह पाँचवीं, आठवीं और दसवीं कक्षा में भी बच्चे पिछड़ गए हैं | नेशनल अचीवमेंट सर्वे के मुताबिक पिछली बार छत्तीसगढ़ देशभर में 18वें पायदान पर था* |
एक अन्य निजी सर्वेक्षण संस्था ‘असर’(ASER) की रिपोर्ट के अनुसार *छत्तीसगढ़ के स्कूलों के पाँचवीं कक्षा में पढ़ने वाले 90.2 प्रतिशत बच्चे दूसरी कक्षा की किताब नहीं पढ़ पाते | यह है बुनियादी-शिक्षा के गुणवत्ता का स्तर ! जिस प्रदेश के बुनियादी-स्तर का इतना बुरा हाल हो उसके उच्च-शिक्षा के स्तर का हाल क्या होगा ? इसका अंदाजा लगाना कोई ज्यादा मुश्किल नहीं है | केन्द्रीय शिक्षा मन्त्रालय ने ‘नेशनल इंस्टीट्युशनल रैंकिंग फ्रेमवर्क (एनआइआरएफ) 2022’ के जो परिणाम 15जुलाई 2022 को जारी किया है उसके अनुसार तो छत्तीसगढ़ में उच्च-शिक्षा की गुणवत्ता की पोल ही खुल गई है | प्रदेश के एक भी विश्वविद्यालय को टॉप-100 में जगह ही नहीं मिल पाई है* | जिस प्रदेश में ‘बुनियादी-शिक्षा’ का ही बुरा हाल हो उसके उच्च-शिक्षा का स्तर गर्व करने लायक ‘ऊँचा’ कैसे हो सकता है ? जिसकी ‘नींव’ ही कमजोर हो वह ‘भवन’ कितने दिन तक मजबूती के साथ खड़ा रह सकेगा ? कभी न कभी भरभरा कर ढहेगा ही | शिक्षा के इस मूलभूत-मुद्दे को हमारे तत्कालीन व उसके बाद के कर्णधारों ने जाने-अनजाने कोई खास तवज्जो कभी दी ही नहीं | *जबकि सभी शिक्षाशास्त्री, न्यायशास्त्री सहित समस्त विचारक और महा-मानवों सदैव चेतावनी देते रहे ! खासकर छत्तीसगढ़ में तो उस हितकारक चेतावनी की घोर आपराधिक-उपेक्षा आज तक होते आ रही है जिसे गाँधीजी 20/10/ 1917 से लेकर अपने अंतिम समय तक देते आ रहे थे !* उन्होंने बड़ी गम्भीरता से, भडौंच में आयोजित द्वितीय शिक्षा सम्मेलन के अपने अध्यक्षीय भाषण में उस दिन कहा था की,*”यह बात सबको अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि हमारा पहला काम है, विचारपूर्वक ‘शिक्षा का माध्यम’ निश्चित करना ! इसके बिना और सब कोशिशें लगभग बेकार साबित हो सकती हैं ! शिक्षा के माध्यम का विचार किये बिना शिक्षा देने का परिणाम, नींव के बिना इमारत खड़ी करने जैसी बात होगी”* (राष्ट्रभाषा : राष्ट्रपिता का आह्वान, पृष्ठ १८९)|
गाँधीजी ने तभी दो टूक सन्देश दे दिया था कि *‘शिक्षा का माध्यम मातृभाषाएँ ही होना चाहिए’ ! इसे वे अंतिम साँस तक दोहराते रहे ! उन्होंने कहा था कि “ अंग्रेजी भाषा के माध्यम से शिक्षा में कम-से-कम सोलह वर्ष लगते हैं यदि इन्हीं विषयों की शिक्षा मातृभाषा के माध्यम से दी जाए, तो ज्यादा-से-ज्यादा दस वर्ष लगेंगे हजारों विद्यार्थियों के छह-छह वर्ष बचने का अर्थ यह होता है कि कई हजार वर्ष जनता को मिल गए | विदेशी भाषा द्वारा शिक्षा पाने में दिमाग पर जो बोझ पड़ता है वह असह्य है | यह बोझ हमारे बच्चे उठा तो सकते हैं लेकिन उसकी कीमत उन्हें चुकानी पड़ती है | वे दूसरा बोझ उठाने लायक नहीं रह जाते | इससे हमारे स्नातक अधिकतर निकम्मे,निरुत्साही,रोगी और कोरे नकलची बन जाते है | उनमें खोज करने की शक्ति,विचार करने की शक्ति,साहस,धीरज,वीरता, निर्भयता,और अन्य गुण बहुत क्षीण हो जाते हैं | इससे हम नई योजनाएँ नहीं बना सकते, और यदि बनाते है तो उन्हें पूरा नहीं कर पाते”*(वही,पृष्ठ 194) |
‘शिक्षा’ और ‘शिक्षा का माध्यम’ सम्बन्धी गाँधीजी के ये विचार शत प्रतिशत सही हैं | इसका प्रमाण है ‘मातृभाषा-माध्यम’ से किसी भी स्तर पर शिक्षा न देने वाले छत्तीसगढ़ में प्राथमिक-शिक्षा से लेकर उच्च-शिक्षा तक का गुणवत्ता-स्तर | जिसे सभी सर्वेक्षणों ने उजागर किया है | हम स्वयं विचार करें कि मातृभाषा-माध्यम में शिक्षा पाने वाले देश के विभिन्न राज्यों की तुलना में, किसी भी मातृभाषा में किसी भी स्तर पर शिक्षा न पाने वाले छत्तीसगढ़िया शिक्षा में कहाँ हैं
नंदकिशोर शुक्ला