Uncategorized

बस्तर का अनोखा लिंगेश्वरी मंदिर जो साल में सिर्फ एक दिन खुलता है

रायपुर .छत्तीसगढ़ के बस्तर संभाग के कोंडागांव जिले के आलोर क्षेत्र में स्थित देवी लिंगेश्वरी का द्वार जो केवल साल में एक दिन  ही खुलता है, वह 19 सितंबर को खुलेगा। इस मंदिर में निसंतान दंपत्तियों एवं दर्शनार्थियों की भीड़ उमड़ती है। फरसगांव के पश्चिम में 9 किमी दूर बड़े डोंगर मार्ग पर ग्राम आलोर में स्थित है। ग्राम से 2 किमी दूर उत्तर पश्चिम में एक पहाड़ी है, जिसे लिंगाई माता के नाम से जाना जाता है।इस छोटी सी पहाड़ी के उपर एक विस्तृत फैला हुई चट्टान है, चट्टान के उपर एक विशाल पत्थर है। बाहर से अन्य पत्थर की तरह सामान्य दिखने वाला यह पत्थर अंदर से स्तूपनूमा है। इस पत्थर की संरचना को भीतर से देखने पर ऐसा लगता है कि मानों कई विशाल पत्थर को कटोरानुमा तराशकर चट्टान के उपर उलट दिया गया है।इस मंदिर की दक्षिण दिशा में एक छोटी सी सुरंग है जो इस गुफा का प्रवेश द्वार है। प्रवेश द्वार इतना छोटा है कि, बैठकर या लेटकर ही यहां प्रवेश किया जाता है। अंदर में लगभग 25 से 30 आदमी आराम से बैठ सकते हैं।गुफा के अंदर चट्टान के बीचों-बीच निकला शिवलिंग है, जिसकी लंबाई लगभग दो या ढाई फुट होगी। प्रत्यक्षदर्शियों का मानना है कि पहले इसकी ऊंचाई बहुत कम थी। ब लिंगाई माता प्रतिवर्ष भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष नवमीं तिथि के पश्चात आने वाले बुधवार को इस प्राकृतिक देवालय को खोल दिया जाता है तथा दिन भर श्रद्धालुओं द्वारा पूजा अर्चना एवं दर्शन के पश्चात पत्थर टिकाकर दरवाजा बंद कर दिया जाता है।नि:संतान दंपत्ति यहां संतान की कामना लेकर आते हैं, मनौती मांगने का तरीका भी यहां निराला है। संतान प्राप्ति की इच्छा रखने वाले दंपत्ति को खीरा चढ़ाना आवश्यक है। चढ़ा हुआ खीरा को पंजारी द्वारा नाखून से फाड़कर खाना पड़ता है, जिसे शिवलिंग के समक्ष ही कड़वा भाग सहित खाकर गुफा से बाहर निकलते हैं।गुफा प्राकृतिक शिवालय ग्रामीणों के अटूट आस्था और श्रद्धा का केंद्र है। आने वाले अच्छे बुरे समय का भी यहां पूर्वाभास हो जाता है। पूजा के बाद मंदिर की सतह पर रेती बिछाकर उसे बंद किया जाता है। अगले वर्ष इस रेत पर किसी जानवर के पद चिन्ह अंकित मिलते हैं।दरवाजा खुलते ही पांच व्यक्ति पहले रेत पर अंकित निशान देखकर लोगों को इसकी जानकारी देते हैं। रेत पर यदि बिल्ली के पैर के निशान हों तो अकाल घोड़े के खुर के चिन्ह हों तो युद्ध कलह का प्रतीक माना जाता है। पीढ़ियों से चली आ रही परम्परा और लोक मान्यता के कारण भाद्रपद माह में एक दिन शिविलिंग की पूजा तो होती है। पर शेष समय या बाकी दिन शिवलिंग गुफा में बंद रहती है।