भारत लंबे समय से संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) में स्थायी सदस्यता की दावेदारी करता रहा है. भारत की इस दावेदारी पर अब फ्रांस की तरफ से बड़ा सपोर्ट मिला. फ्रांसीसी राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने यूएनएससी में भारत को जगह देने की वकालत की है. मैक्रों ने भारत के अलावा ब्राजील और जापान को भी सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बनाने की अपील की.
संयुक्त सुरक्षा परिषद में रूस भारत की आजादी के बाद से ही स्थायी प्रतिनिधित्व का पक्षधर रहा है. इसके बाद 21वीं सदी आते-आते भारत की जैसे-जैसे विदेश नीति में धमक बढ़ी तो ब्रिटेन और अमेरिका भी भारत को सुरक्षा परिषद में स्थायी जगह देने के पक्षधर हो गए. ऐसे में सवाल उठता है कि जब लगभग सभी देश भारत को स्थायी सदस्यता देने के पक्षधर हैं तो फिर पेच फंसता कहां है?
चीन बार-बार अड़ाता है अड़ंगा
इस सवाल का जवाब देते हुए राजनीतिक विश्लेषक अरविंद जयतिलक मानते हैं कि भारत के इस सवाल का जवाब चीन और अमेरिका हैं. वह कहते हैं, ‘चीन भले ही अब साउथ चाइना सी और हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अपने दबदबे के लिए भारत को खतरा मानता हो, लेकिन भारत की इस समस्या के लिए बहुत हद तक अमेरिका भी जिम्मेदार है. वर्तमान में चीन भारत को वीटो मिलने से रोकने के लिए सुरक्षा परिषद में वीटो कर देता है. या जब उसके पास कोई जवाब नहीं बचता तो वह पाकिस्तान को भी वीटो देने का अपना राग अलापने लगता है. इस मामले को चीन के एंगल से अलग भी समझना जरूरी है.’
पहले अमेरिका भी था खिलाफ
वह आगे कहते हैं कि चीन तो भारत का धुर विरोधी है ही, लेकिन अमेरिका अभी जो यह भारत को सुरक्षा परिषद में स्थायी सीट देने के लिए राजी हुआ है, यह स्थिति हमेशा नहीं थी. भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का सोशलिस्ट लोकतंत्र होने की वजह से हम तत्कालीन सोवियत संघ के ज्यादा नजदीक थे, जिसकी वजह से अमेरिका हमारे खिलाफ था. जैसा हम 1971 के भारत-पाक युद्ध में भी देख चुके हैं.