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72 पुलों से गुजरती है यह ट्रेन, रोमांच से भरपूर है इसका सफर, क्या आप बैठना चाहेंगे

इस बार संयुक्त राष्ट्र की जनरल एसेंबली में तुर्की के राष्ट्रपति एर्दोगन ने जिस तरह कश्मीर के मुद्दे पर चुप्पी साध ली. भारत की आलोचना में एक शब्द नहीं कहा, उससे कयास लगने लगे हैं कि दरअसल ये सब वो इसलिए कर रहे हैं ताकि भारत, ब्राजील, रूस, साउथ अफ्रीका और चीन के ग्रुप ब्रिक्स को ज्वाइन कर सकें. अब असली बात यही है कि आखिर तुर्की क्यों संगठन में आना चाहता है.

यहां आपकी जानकारी के लिए ये बता दें कि तुर्की ने ब्रिक्स देशों की पूर्ण सदस्यता के लिए आवेदन किया हुआ है. जिस पर ब्रिक्स के सभी देशों को सहमत होना है. पिछले कुछ समय में तुर्की के साथ नाटो के प्रमुख देशों के साथ रिश्तों में असहजता आई है. यूरोपीय अर्थव्यवस्था में उसके लिए चुनौतियां बढ़ गई हैं, उसे अब नए बाजार की भी तलाश है और बदलते वैश्विक दौर में अलग पहचान की भी, जो उसे ज्यादा ताकत दे सके.

सवाल – तुर्की यूरोप का देश है, नाटो में शामिल है लेकिन वो ब्रिक्स में क्यों आना चाहता है?
– तुर्की यूरोप से बाहर नये आर्थिक प्लेटफॉर्म की तलाश में है. उसका अपना कहना है कि ब्रिक्स के साथ जुड़कर,तुर्की का लक्ष्य पूर्व और पश्चिम के बीच एक सेतु के रूप में अपनी भूमिका को मजबूत करना है, जिससे अंतरराष्ट्रीय मामलों में इसका रणनीतिक महत्व बढ़ेगा. दरअसल तुर्की अपनी विदेश नीति में बदलाव लाना चाहता है, जिससे उसकी इस इमेज में बदलाव भी आए कि वो मुस्लिम देशों का अगुवा बनना चाहता है. यकीनन तुर्की के उस रुख में हाल में बदलाव दीख रहा है. वह अपनी कट्टर मुस्लिम विदेश नीति वाली नीति से हटता हुआ लग रहा है.

सवाल – ब्रिक्स तो मोटे तौर पर आर्थिक संगठन का काम ज्यादा करता है तो ये तुर्की के लिए क्या करेगा?
– बेशक वो नए बाजार तक पहुंच बनाएगा. ब्रिक्स में शामिल होने से तुर्की की उभरते बाजारों तक पहुंच आसान हो सकती है. इसके व्यापार संबंधों में विविधता आ सकती है. अब तक तुर्की की अर्थव्यवस्था यूरोप के बाजार पर निर्भर करती थी, जिसमें पिछले कुछ सालों में गिरावट आई है. मुस्लिम देशों का अगुवा बनने की कोशिश भी उसके लिए वैसा मुस्लिम बाजार खोल नहीं पाई. लिहाजा अब उसे एशिया के दो बड़े बाजारों की जरूरत है, जो चीन और भारत दोनों हैं, जिसमें मुख्य तो भारत ही है.

सवाल – ब्रिक्स देश उसके और क्या काम आ सकते हैं?
– तुर्की का अनुमान है कि ब्रिक्स देशों के साथ घनिष्ठ संबंध नए निवेशों को आकर्षित कर सकते हैं. रोजगार के अवसर पैदा कर सकते हैं. बुनियादी ढांचे और नवीकरणीय ऊर्जा परियोजनाओं के लिए ब्रिक्स न्यू डेवलपमेंट बैंक से वित्त पोषण की संभावना भी उसे नजर आ रही है.

सवाल – क्या दुनिया की बदलती स्थिति और समीकरण भी तुर्की को इसके लिए बाध्य कर रहे हैं?
– विश्लेषकों का कहना है कि तुर्की की बदलती बोली भू-राजनीतिक परिदृश्य में बदलाव में खुद के जगह बनाने की बात ज्यादा दिखाती है. क्योंकि जो एर्दोगान लगातार आक्रमक तेवर अपनाए हुए दिखते थे, वो अब संयत हो रहे हैं. वैश्विक मंचों पर उनके भाषण की बोली और विषयवस्तु में बदलाव हो रहा है. ब्रिक्स में ब्राजील, चीन और भारत इस समय दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्था के तौर पर उभर रही हैं.
ब्रिक्स के साथ जुड़कर तुर्की खुद को एक ऐसे समूह में रखता है जो अधिक न्यायसंगत वैश्विक व्यवस्था की वकालत करता है, जो IMF और विश्व बैंक जैसे पश्चिमी नेतृत्व वाले संस्थानों के प्रभुत्व को चुनौती देता है.
अब तुर्की की रणनीति पूर्वी और पश्चिमी दोनों शक्तियों के साथ संबंध बनाए रखना भी लगता है. इस दोहरे दृष्टिकोण से तुर्की वैश्विक मंच पर प्रमुख खिलाड़ी बन सकता है.

सवाल – तुर्की के BRICS में शामिल होने के प्रयासों का NATO के साथ उसके संबंधों पर क्या असर पड़ेगा?
– इसका असर महत्वपूर्ण रहेगा. BRICS में तुर्की के आने की लालसा को पश्चिम से परे अपनी अंतर्राष्ट्रीय साझेदारी में विविधता लाने की व्यापक रणनीति के हिस्से के रूप में देखा जा रहा है. यह कदम तुर्की को NATO सदस्यता को बनाए रखते हुए विदेश नीति में अपनी स्वायत्तता का दावा करने की अनुमति देता है विश्लेषकों का मानना है कि तुर्की NATO नहीं छोड़ेगा बल्कि पश्चिमी और गैर-पश्चिमी दोनों शक्तियों के साथ जुड़कर अपने भू-राजनीतिक लाभ को बढ़ाने की कोशिश करेगा.

सवाल – क्या इससे नाटो के देश तुर्की को लेकर चिंतित हो सकते हैं?
– ब्रिक्स में रूस और चीन जैसे देशों का होना और तुर्की का उसकी सदस्यता के लिए आगे बढ़ना नाटो को बेशक चिंता में डालेगा. BRICS में सदस्यता यकीनन NATO की भावना के विपरीत मानी जा सकती है. हितों का टकराव होगा. जिससे NATO के अन्य सदस्यों के साथ तुर्की के संबंधों को प्रभावित होंगे.

हम सभी ने देखा है कि जब तुर्की ने रूस की S-400 मिसाइल प्रणाली को खरीदा था, इससे नाटो देशों के बीच तनाव हो गया था. तो ये कदम निश्चित तौर पर नाटो सहयोगियों के साथ व्यापार संबंधों को जटिल बना सकता है. हालांकि ये आर्थिक विविधीकरण उसके लिए इसलिए अहम होगा, क्योंकि तुर्की को यूरोपीय संघ में शामिल होने की प्रक्रिया में चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है. वैसे भी तुर्की के नाटो देशों के साथ संबंधों में असहजता आ रही है.

सवाल – क्या इससे तुर्की का क्षेत्रीय प्रभाव और बढ़ेगा?
– तुर्की की संभावित ब्रिक्स सदस्यता बाल्कन, मध्य पूर्व और मध्य एशिया में इसके प्रभाव को बढ़ा सकती है, जिससे यह वैश्विक मामलों में एक प्रमुख खिलाड़ी के रूप में स्थापित हो सकता है.

सवाल – क्या इसका असर मुस्लिम देशों के साथ उसके रिश्तों पर भी होगा?
– ब्रिक्स में तुर्की की भागीदारी मुस्लिम-बहुल देशों, जैसे ईरान और मिस्र के साथ मजबूत कूटनीतिक और आर्थिक संबंधों को सुगम बना सकती है, जो अभी तक नहीं रहे हैं. हालांकि ईरान और मिस्र के साथ कई मुस्लिम देशों को तुर्की का खुद को इस्लामी दुनिया के भीतर एक नेता के रूप में स्थापित करना पसंद नहीं आया था.

सवाल – ब्रिक्स में तुर्की की सदस्यता का स्टेटस फिलहाल क्या है. क्या तुर्की ने उसके लिए आवेदन किया है?
– क्रेमलिन के एक वरिष्ठ अधिकारी के अनुसार तुर्की ने उभरती अर्थव्यवस्थाओं के ब्रिक्स ब्लॉक में पूर्ण सदस्यता के लिए आधिकारिक तौर पर आवेदन किया है. सितंबर 2024 में राष्ट्रपति पुतिन के विदेश मामलों के सहायक यूरी उशाकोव ने पुष्टि की कि तुर्की ने ब्रिक्स में “पूर्ण सदस्यता के लिए” आवेदन प्रस्तुत किया है. हालांकि तुर्की के राष्ट्रपति एर्दोगन कई मौकों पर ये जाहिर कर चुके हैं कि तुर्की की महत्वाकांक्षा ब्रिक्स में शामिल होने की हैय

फिलहाल ब्रिक्स की अध्यक्षता रूस कर रहा है, उसका कहना है कि सदस्यता के लिए तुर्की के आवेदन पर विचार किया जाएगा. अगले महीने रूस में 2024 ब्रिक्स शिखर सम्मेलन होना है, जिसमें ब्लॉक के विस्तार और तुर्की की संभावित सदस्यता पर विचार हो सकता है.

सवाल – ब्रिक्स में कितने पूर्णकालिक सदस्य हैं और ये कब शुरू हुआ?
– ब्रिक्स ने एक समूह के तौर पर सितंबर 2006 में आकार लिया था. इसकी शुरुआत ब्राजील, रूस, भारत और चीन (ब्रिक) ने मिलकर की थी. सितंबर 2010 में दक्षिण अफ्रीका को पूर्ण सदस्य के रूप में स्वीकार किए जाने के बाद इसका नाम बदलकर ब्रिक्स कर दिया गया.
हालांकि अबह इसके कुल 10 पूर्ण सदस्य हैं. नए पूर्ण सदस्य मिस्र, इथियोपिया, ईरान, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात हैं. मुस्लिम और अफ्रीकी देश इस संगठन की ओर आकर्षित हो रहे हैं

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