
वेब -डेस्क :- बसपा हाल ही में एक पॉडकास्ट में दिए गए इंटरव्यू के दौरान आजाद समाज पार्टी (आसपा) के नेता एवं नगीना के सांसद चंद्रशेखर आजाद ने बसपा कार्यालय में फोन कर मायावती से मिलने की पेशकश की। भारतीय दलित राजनीति पर नजर रखने वाले विशेषज्ञ यह भली-भांति जानते हैं कि चंद्रशेखर आजाद, अपनी पार्टी की स्थापना से पहले, कई बार बहुजन समाज पार्टी (बसपा) प्रमुख मायावती से मिलने और दलित राजनीति को आगे बढ़ाने के लिए सहयोग मांगने का प्रयास कर चुके हैं। हालांकि, मायावती ने इस मुद्दे पर कभी कोई सार्वजनिक बयान नहीं दिया।
2024 के लोकसभा चुनाव से पहले जब बसपा के स्टार प्रचारक आकाश आनंद से चंद्रशेखर आजाद के बारे में पूछा गया, तो उन्होंने उन्हें पहचानने से इनकार कर दिया। नतीजा यह हुआ कि बसपा चुनाव में पूरी तरह साफ हो गई, जबकि आसपा ने पहली बार संसद में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। 2016 से अब तक, चंद्रशेखर आजाद जहां भी दलितों पर अत्याचार हुआ है, वहां पहुंचकर पीड़ितों के लिए न्याय की लड़ाई लड़ते नजर आए हैं। दूसरी ओर, बसपा के किसी बड़े नेता ने, यहां तक कि स्वयं मायावती ने भी, दलित उत्पीड़न के मुद्दों पर उतनी मुखरता से आवाज नहीं उठाई, जितनी उम्मीद की जाती थी।
मायावती ने चार बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद की जिम्मेदारी संभाली और उनके शासन को सुशासन के रूप में याद किया जाता है। उनके नेतृत्व ने दलित राजनीति को राष्ट्रीय स्तर पर एक मजबूत पहचान दिलाई। लेकिन सत्ता गंवाने के बाद, बसपा लगातार कमजोर होती गई, जिससे दलित राजनीति की धार भी कुंद हो गई। 2014 के बाद, जब से भाजपा केंद्र में सत्ता में आई है, दलितों पर हमले बढ़े हैं—रोहित वेमुला केस, पायल तड़वी मामला, ऊना कांड और हाथरस रेप केस जैसे जघन्य अपराध इसके उदाहरण हैं। इसके बावजूद, बसपा नेतृत्व इन मुद्दों पर अधिकतर खामोश ही बना रहा। 2019 में जब एससी-एसटी एक्ट में संशोधन का मामला उठा, तब भी मायावती की ओर से कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया, जबकि चंद्रशेखर आजाद ने इस मुद्दे पर सरकार को बैकफुट पर लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि अगर 2024 के लोकसभा चुनाव में मायावती विपक्षी गठबंधन के साथ होतीं, तो उत्तर प्रदेश में भाजपा 10 सीटें भी नहीं जीत पाती। इसके बजाय, बसपा ने अलग चुनाव लड़कर भाजपा को अप्रत्यक्ष रूप से फायदा पहुंचाया। हालांकि, गठबंधन करना अनिवार्य नहीं था, लेकिन ऐसे समय में जब दलित समुदाय अन्याय, धार्मिक पाखंड, अशिक्षा और बेरोजगारी से जूझ रहा है, तब बसपा की निष्क्रियता उसकी कमजोर राजनीतिक समझ को दर्शाती है।
मायावती के नेतृत्व में बसपा का एक मजबूत वोट बैंक है, जो उनकी लगातार हार के बावजूद उनके साथ बना हुआ है। लेकिन पिछले 15 वर्षों में उन्होंने कोई बड़ा जन आंदोलन खड़ा नहीं किया, जबकि दूसरी पार्टियों के नेता जनता के बीच जाकर अपनी पकड़ मजबूत कर रहे हैं। अगर मायावती भी जनसंपर्क और सोशल मीडिया अभियानों पर ध्यान देतीं, तो भारतीय राजनीति में बड़ा बदलाव आ सकता था।
मान्यवर कांशीराम का मानना था कि सत्ता में रहना जरूरी नहीं, लेकिन अपने समाज के स्वाभिमान की रक्षा करना सबसे बड़ी प्राथमिकता होनी चाहिए। बसपा की सबसे बड़ी कमजोरी यही रही है कि सत्ता से बाहर होते ही वह अपनी विचारधारा की लड़ाई तक भूल जाती है। आज जब दलित समुदाय के लिए नए नेतृत्व की जरूरत है, तब मायावती की निष्क्रियता सवालों के घेरे में है।
दूसरी ओर, चंद्रशेखर आजाद का संघर्षमय रवैया उन्हें बाकी नेताओं से अलग बनाता है। जब वे किसी पीड़ित के हक के लिए सड़क पर उतरते हैं, तो ऐसा लगता है मानो वे अन्याय के इस तंत्र को जड़ से खत्म कर देना चाहते हैं। उनकी इसी जुझारू शैली ने उन्हें दलित राजनीति का नया चेहरा बना दिया है।
अब सवाल यह है कि मायावती दलित राजनीति को पुनर्जीवित करेंगी या चंद्रशेखर के लिए रास्ता छोड़ेंगी? देश की राजनीति अब वातानुकूलित कमरों में बैठकर की जाने वाली रणनीतियों से नहीं, बल्कि जमीनी संघर्ष से तय होगी।